पहाड़ी महिलाओं की शान “पिछोड़ी”, इसलिए लगाया जाता है कुमाऊं में नाम के आगे “देवी”

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Pichora: पहाड़ की एक ऐसी संस्कृति जो सदियों से चली आ रहीं है. कई पीढ़ियों के बीत जाने के बाद भी यह एक ऐसी संस्कृति है जिसका क्रेज आज भी युवाओं में देखने को मिला है, सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी लोग इसके दिवाने हैं. गहरा पीला, लाल रंग और सुनहरा बार्डर, ऐपण की चौकी और ऊं का चिन्ह पिछोड़ी में होता है. पिछोड़ी (Pichora) में बने स्वास्तिक की चार मुड़ी हुई भुजाओं के बीच शंख, सुर्य, लक्ष्मी और घंटी की आकृतियां बनी होती है. जहां सुर्य-ऊर्जा तो लक्ष्मी-धन और उन्नति का प्रतीक है.

पिछोड़ी को रंग्वाली भी कहते है

पिछोड़ी के स्थानीय भाषा में रंग्वाली भी कहा जाता है. रंग्वाली शब्द का इस्तेमाल इसके प्रिंट की वजह से किया जाता है, क्योंकि पिछोड़ी का प्रिंट काफी हद तक रंगोली की तरह दिखता है. शादी हो या जनैऊ और पूजा-अर्चना आदि हर मांगलिक मौके पर परिवार और रिश्तेदारों में महिलाएं पिछोड़ी पहनती है. वहीं, देवभूमि की महिलाओं को ये पारंपरिक परिधान खास बनाता है. पिछोड़ी के बिना देवभूमि में हर त्यौहार और मांगलिक कार्य अधूरा है.

पिछोड़ी देवी की चुनरी के सामान पवित्र

वहीं, पिछोड़ी को देवी की चुनरी के सामान ही पवित्र माना जाता है, इसलिए कुमाऊं की महिलाओं के नाम के आगे देवी लगाने का प्रचलन है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि, पहले लोग पिछोड़ी को अपने घरों में ही बनाते थे, लेकिन बाद में पिछोड़ी बाजारों में भी बिकने लगे. वहीं पहाड़ी संस्कृति से जुड़ी है पिछोड़ी की पहचान-

पिछोड़ी सबसे पहले कहां से आया ?

इसके बारे में अभी स्पष्ट नहीं है, मगर पहले केवल दुल्हन द्वारा पिछोड़ा पहना जाता था. लेकिन बाद-बाद में सभी सुहागन महिलाओं द्वारा पिछौड़ा पहना जाने लगा.

पिछोड़ी में पीला और लाल रंग ही क्यों ?

पिछोड़ी में पिला और लाल रंग इसलिए क्योंकि पीला रंग प्रसन्न और ज्ञान का प्रतीक है तो लाल रंग जीवन की खुशहाली का प्रतीक है.

उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत को देखने देश-विदेश से हर साल लाखों लोग आते हैं, देवभूमि में कई ऐसी ऐतिहासिक और संस्कृतिक कार्यक्रमों में यहां स्थानीय परिधान लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. महिलाएं पिछोड़ी पहनने के बाद ही रस्में पूरी करती है. उत्तराखंड की शान कहे जाने वाले रंगोली पिछोड़ी के पहनावे का क्रेज महिलाओं में काफी है. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इस पिछोड़ी का सफर जारी है, शायद आगे भी रहेगा.

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