21 सितम्बर की तारीख गढ़वाल रेजीमेंट के वीरों की दिलाती है याद, पढ़िए क्या है फ्रांस में मिले 100 साल पुराने अवशेषों का गढ़वाल कनेक्शन…

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उत्तराखंड राज्य और यहां के सैनिकों के बलिदान की कहानियां आपने अक्सर सुनी होंगी, लेकिन आज हम जो आपको बताने जा रहे हैं यह राज्य के गढ़वाल मंडल से जुड़े बेहद ही खास ऐतिहासिक स्मृति है। 21 सितम्बर की तारीख से जुड़ी यह ऐतिहासिक घटना आपको तब और भी रोचक लगेगी, जब आपको यह पता चलेगा कि गढ़वाल के सैनिकों की इस गाथा की गवाही आज भी फ्रांस में मौजूद म्यूजियम और सैनिकों के स्मारक दे रहे हैं।

उत्तराखंड के गौरवशाली वीरों के इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए पहले आपको फ्लैशबैक में जाना होगा।
दरअसल बात साल 2016 की है जब फ्रांस के रिचबर्ग में एक निर्माण के चलते खुदाई का कार्य किया जा रहा था कि अचानक वहां दो नर कंकाल पाए गए। इन कंकालों के बारे में खोजबीन के बाद पता चला कि ये लगभग 100 साल पुराने हैं। इस दौरान कंकालों के पास से 2 बैज भी मिले थे।जिनपर 39 गढ़वाल राइफल्स अंकित था। जिसके बाद ख साफ हो गया कि गढ़वाल के जाबांजों के ये शव पिछले सौ सालों से फ़्रांस की धरती में एक बड़े राज़ को दबाए दफ़न थे।

रिचबर्ग में मिले इन नरकंकालों ने मानों उत्तराखंड के 100 साल पुराने इतिहास के गर्त में छुपे राज़ पर से धूल हटा दी हो। जिसके बाद इन्हें लेकर शोध शुरू किया गया। वहीं अब इस शोध से ये भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि अगर नरकंकाल मिले इलाकों में और खुदाई की जाए तो अन्य गढ़वाली शूरवीरों के शव बरामद किए जा सकते हैं। बता दें कि फ्रांस में यह सभी अवशेष लेवेन्टी सैन्य कब्रिस्तान से 11 किमी दूर उत्तर में पाए गए थे।

100 साल बाद अचानक से फ्रांस में मिले गढ़वाली सैनिकों के अवशेषों ने जैसे गढ़वाल की एक प्रसिद्ध कहावत जर्मनी की लड़ाई और पंवाली की चढ़ाई को भी साबित कर दिया है। क्योंकि उत्तराखंड के इतिहास में इस लड़ाई के किस्से आज भी सुनहरे पन्नों में दर्ज हैं। इस दौरान घनसाली के भी कई वीर जवान इस लड़ाई में शहीद हुए थे। वहीं जो इस युद्ध से बचकर आए वो इस लड़ाई को लड़ना ठीक वैसा बताते हैं जैसा कि पांवली की दुर्गम लड़ाई को लड़ना होता है। जिसके चलते इन युद्धों के बाद वीर जवानों के साथ ये कहावत भी अमर हो गई।

दरअसल रिचेबर्ग का मोर्चा फ्रांस और जर्मनी के बॉर्डर से होकर लगता था। ऐसे में रणनीति के थी जर्मनी ने वहां गहरी खंदक खोद डाली थी। उन्हे पार नहीं कर पाने के चलते दुनियां की सबसे बेहतरीन इन्फेंट्री की मांग की गई। इस मांग पर ही 21 सितम्बर 1914 के दिन भारत से गढ़वाल से 39 बटालियन को जहाज के जरिए रवाना कर दिया गया। जिसके बाद 13 अक्तूबर को फ्रांस की सेना ने गढ़वाल के सिपाहियों को बिना युद्ध भूमि का भूगोल बताए ही युद्ध में भेज दिया। इस दौरान अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए गढ़वाल रेजीमेंट के सिपाही फ्रांस सेना की तरफ से भेजे गए युद्ध में जर्मनी की तरफ से बनाए गए जा घुसे।

गढ़वाली रेजीमेंट की सैनिकों के इस साहस का जर्मनी के सैनिकों को जरा भी आभास नहीं था लेकिन गढ़वालियों ने खंडकों में मौजूद सभी जर्मनी सैनिकों को बंदी बना लिया। जिसके बाद हार से बौखलाए जर्मनी ने यह तय किया कि बंधक बने सैनिकों को ध्वस्त करने के लिए ग्रेनेट फेंके जाय लेकिन जब ग्रैनेट फेंके गए तो गढ़वाली सैनिक भी जर्मनी सैनिकों के साथ उन खंदकों में दफ़न हो गए। गढ़वाल का इतिहास भाग 2 में शिव प्रसाद डबराल ने भी लिखा है, ग्रेनेट फैंकने से गीली मिट्टी के उन खंदकों में जर्मन सैनिकों के साथ गढ़वाली सैनिक भी इतिहास में दफन हो गए।।

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