उत्तराखंड में अल्मोड़ा में हुई थी सबसे पहले रामलीला, पेट्रोमैक्स और चीड़ के छिलके जलाकर होता था मंचन

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बरसात बीत गई है। गांवों में मवेशियों के लिए चारे के लिए घास काटकर सुखाने की तैयारी चल रही है। यह साल का वह समय है जब सूरज की तपन कम होने लगी है और गर्म कपड़े व बिस्तर बाहर निकल आए हैं। सुबह-शाम मंदिरों में बजने वाले शंख और घंट्टियों के संगीत की जुगलबंदी जब कानों तक पहुंच रही है तो हृदय अनायास ही उस पर थिरकने लगता है। और इसी के साथ शुरू हो गया है रामलीलाओं का दौर।

सदियों से रामायण को भिन्न-भिन्न भाषा और रूपों में श्रद्धालुओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता रहा है। इतिहासकारों की माने तो उत्तराखंड में रामलीला मंचन का इतिहास 163 साल पुराना है। श्री रामचरित मानस पर आधारित इस रामलीला में गीतों-चौपाइयों को नाटक के माध्यम से दिखाया जाता है। प्रदेश में रामलीला मंचन का श्रेय अल्मोड़ा के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर देवीदत्त जोशी को जाता है माना जाता है कि 1860 में उन्होंने अल्मोड़ा के केबद्रेश्वर मंदिर में रामलीला का मंचन करवाया था। तब तराई-भाबर का ही विद्युतीकरण नहीं हुआ था तो पहाड़ में तो रोशनी करने के लिए लोग चीड़ के छिलके और दीयों पर ही निर्भर थे। ऐसे में आयोजन के दौरान रोशनी करने के लिए प्रट्रोमेक्स, मशालों और चीड़ के छिलकों का सहारा लिया जाता था। उन दिनों मंचन के लिए कोई विशेष टीम नहीं आती थी, बल्कि गांव के लोग ही इसमें भाग लेते थे। खास बात यह थी की सीता से लेकर मंदोदरी और कौशल्या से लेकर कैकई तक सारे महिला किरदारों को भी पुरुष ही निभाते थेे।

अल्मोड़ा के बाद धीरे-धीरे यह मंचन पूरे प्रदेश में पहुंच गया। जानकारों की माने तो गढ़वाल में पौढ़ी से रामलीला मंचन की शुरूआत हुई। वक्त के सा‌थ आयोजन में काफी परिवर्तन आ गया है। आज अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। हनुमान हवा में उड़ते दिखते हैं। युद्ध के दौरान तलवारों से चिंगारी निकलती है। बैकग्राउंड पहले से बेहतर हो गए हैं लेकिन ढोलक, हारमोनियम और तबले की धुन में पारंपरिक तरीके से चौपाई गाते उन कलाकारों की बात ही कुछ और होती थी।

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