वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पुण्यतिथि: पेशावर के इस महानायक को बीच सभा में गांधी जी ने टोका- यह गोरखा हैट पहने मुझे डराने के लिए कौन यहां बैठा है?

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वीर वंद्र सिंह गढ़वाली एक ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने अपनी वीरता से उत्तराखंड की माटी को गौरवान्वित किया है। आज इस वीर सेनानी की पुण्यतिथि है। उनका मूल नाम था चंद्र सिंह भंडारी। उनकी वीरता के कारण उन्हें वीर की उपाधि दी गई। चंद्र सिंह का जन्म 25 दिसंबर वर्ष 1891 मासी गांव, पौड़ी गढ़वाल के एक साधारण किसान जलौथ सिंह भंडारी के घर में हुआ था। बचपन से ही चंद्र सिंह बहुत नटखट एवं चंचल, लेकिन प्रखर बुद्धि के थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव के आस-पास ही अर्जित की थी। 14 वर्ष की उम्र की अवस्था में उनका विवाह संपन्न हुआ। ब्रिटिश काल में सेना में भर्ती हुए गढ़वालियों के ठाठ बाट देखकर चंद्र सिंह सेना की ओर आकर्षित हुए, इसके फलस्वरूप 3 सितंबर 1914 में चंद्र सिंह घर से भाग गए और 11 सितंबर को लैंसडौन छावनी में 2/36 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए। 1915 में ही चंद्र सिंह को अंग्रेजी सेना ने लड़ने के लिए फ्रांस भेज दिया।

विश्वयुद्ध के दौरान ही 1917 में एक बार फिर अंग्रेजी सेना की ओर से चंद्र सिंह ने मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। इसके बाद इन्हें बगदाद की लड़ाई में भी भेजा गया। इस समय तक चंद्रसिंह हवलदार रैंक तक पहुंच चुके थे। लेकिन विश्वयुद्ध समाप्त हो जाने पर भारतीय सैनिकों की छटनी होने पर चंद्र को हवलदार से सैनिक बना दिया गया। इससे नाराज चंद्रसिंह ने सेना छोड़ने का मन बनाया। जब अधिकारियों को बात पता चली तो उन्होंने इन्हें रोक लिया। बाद में इन्हें तरक्की देकर बजीरिस्तान भेज दिया गया, तब देश में आजादी का आंदोलन जोर पकड़ चुका था, जिसका असर उन पर भी पड़ चुका था। अंग्रेज अफसरों को इसकी भनक लगी तो इन्हें खैबर दर्रे पर भेज दिया गया। तब तक चंद्र सिंह हवलदार मेजर के पद पर पहुंच चुके थे। इसी समय पेशावर में खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में लाल कुर्ती आंदोलन जोरों पर था।

पेशावर कांड के महानायक के रूप में जन्म

पेशावर में खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में लाल कुर्ती आंदोलन जोरों पर था। अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए चंद्र सिंह के नेतृत्व में गढ़वाल रायफल्स को भेजा। वह 23 अप्रैल 1930 का एक दिन था। पेशावर के किस्सा खवानी बाजार में खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती आंदोलनकारियों की एक सभा चल रही थी। कैप्टन रिकेट ने सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया, लेकिन चंद्र सिंह ने रिकेट को सीज फायर के आदेश दिए कि हम निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाते। इस घटना से अंग्रेज अधिकारियों ने चंद्र सिंह की पूरी पल्टन नजरबंद कर ली। सभी पर राजद्रोह का मुकदमा चला। गढ़वाली सैनिकों की ओर से मुकुंदीलाल ने मुकदमें की पैरवी की पैरवी के चलते चंद्रसिंह को मृत्युदंड की जगह उम्र कैद की सजा दी गई। अंग्रेजी हुकूमत ने चंद्रसिंह की सारी संपत्ति जब्त कर ली। इसके बाद से उन्हें वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम से जाना जाने लगा। अलग-अलग जेलों में रहने के बाद 26 सितंबर 1941 को वे जेल से रिहा हुए।

गांधी जी से उनकी मुलाकात और प्रभाव

महात्मा गांधी जी भी उनसे काफी प्रभावित हुए थे। उनके संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा था कि ” अगर उन्हें आजादी की लड़ाई के दौरान एक और चंद्र सिंह गढ़वाली मिल जाता तो देश कब का आजाद हो जाता “…गांधी जी से उनकी मुलाकात जब हुई थी जब वह बागेश्वर आये थे, तब गांधीजी की सभा में गोरखा हैट पहने चंद्रसिंह भी बैठे थे। उन्हें देखकर गांधीजी ने कहा, “यह गोरखा हैट पहने मुझे डराने कौन यहां बैठा है?
तपाक से खड़े होकर चंद्र सिंह बोले, “मुझे सफेद टोपी मिले तो मैं भी उसे पहन सकता हूं। सभा के बीच से किसी ने एक गांधी टोपी चंद्र सिंह की ओर फेंकी। चंद्र सिंह वह टोपी गांधीजी की ओर फेंकते हुए बोले, “यह बूढ़ा यदि अपने हाथ से मुझे टोपी दे तभी मैं उसे पहनूंगा। ऐसा ही हुआ और
चंद्रसिंह ने गोरखा हैट उतार कर सफेद गांधी टोपी धारण कर ली। उस क्षण चंद्रसिंह ने संकल्प लिया कि वह प्राण देकर भी गांधी द्वारा पहनाई गई टोपी के आन-मान की रक्षा करेगा, देश की आजादी के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने से पीछे नहीं हटेगा और 1930 में उन्होंने उस टोपी की कीमत चुका भी दी।

मृत्यु के सम्मान में जारी किए गए डाक टिकट
1 अक्टूबर वर्ष 1979 को लंबी बीमारी के बाद उनका देहांत हो गया। 1994 में उनके सम्मान में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया। कई सड़कों के नाम भी उनके नाम पर रखे गए।

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