कुमाऊं का लोकपर्व ‘खतड़वा’: गढ़वाल से जुड़ी किवदंती केवल भ्रांतियां… पशुओं के स्वास्थ्य की कामना से जुड़ा है यह पर्व।

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आज खतड़वा त्योहार है। कुछ लोग इसे खतड़वा भी कहते हैं। समय के साथ इसे तराई से लगे क्षेत्रों में मनाने का चलन कम हो गया है। या फिर यह सिर्फ औपचारिकता तक सीमित रह गया है लेकिन अगर आप नैनीताल जिले से ऊपर की ओर निकलेंगे तो अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत और पिथौरागढ़ में आज भी बच्चे सुबह से लकड़ी, पीरूल और कपड़ों की मदद से खतड़वे को एक मानव आकार देने में जुट जाते हैं। गोठ (गौशालाओं) की सफाई शुरू हो जाती है।

खतड़वा मनाने के पीछे लोगों के अपने अपने तर्क हैं। उत्तराखंड के लोक अधिकतर लोक त्योहार कृषि, प्रकृति और पशुधन से जुड़े हैं। खतड़वा भी हरेला और हिलजात्रा की तरह कृषि औ पशुधन से जुड़ीं लोक परंपराओं का ही एक हिस्सा है। सितंबर मध्य के बाद से वर्षा ऋतु का अंत और शीत ऋतु की शुरुआत हो जाती है। खतड़वा पहाड़ी शब्द खातड़ या खातड़ी से लिखा गया है, जिसका अर्थ रजाई है। हिंदू माह भाद्रपद की शुरुआत के साथ ही जाड़े में प्रयोग में लाए जाने वाले कपड़े और रजाई कंबल निकाले जाने लगते हैं। पशुधन से संबंधित इस त्योहार के दिन लोग अपनी गौशालाओं की साफ-सफाई करते हैं। पशुओं को ठंड से बचाने के लिए पिरूल या फिर अन्य सूखी घास बिछाई जाती है।

हमारे गांव में तो गोठ को गर्म रखने के लिए उल्टी छत में भी पिरूल भरी जाती ‌थी, जिससे जानवरों को ठंड कम लगे। सूरज ढलने के बाद एक मशाल जलाकर उसे गोठ में घुमाया जाता है। इसके बाद किसी चौबटिया या तिराहे के पास पशुधन को लगने वालीं ‌बीमारियों के प्र‌तीक के रूप में खतड़वा का पुतला जलाया जाता है और खतड़वा पर ककड़ी चढ़ाई जाती है। बाद में यह ककड़ी को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। मुझे कारण तो याद नहीं लेकिन हमारे वहां ककड़ी को किसी औजार से नहीं काटा जाता था बल्कि इसे हाथ से नारियल की तरह फोड़ा जाता था।

इस दौरान बच्चे जोर जोर से चिल्लाते हैं… गाय की जीत खतड़वे की हार, भाग खतड़ुवा धारेधार अर्थात गाय की जीत हुई और पशुधन को लगने वाली बीमारी का प्रतीक खतड़वा हार गया। इसी के साथ पशुधन के बेहतर स्वास्थ्य की कामना का यह पर्व समाप्त हो जाता है।

किंवदंतियों की माने तो इस दिन कुमाऊं के सेनापति गैड़सिंह ने गढ़वाल के सेनापति खतड़वा को हराया था, तभी से यह पर्व मनाया जाता है। लेकिन इतिहासकार इस तरह की किसी भी लड़ाई को नकार चुके हैं। ऐसे में इस तरह की बंटवारा करने वालीं कथाओं पर चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।

मेरी ओर से उत्तराखंड के अंचलों में रहने वाले सभी लोगों को खतड़वा लोकपर्व की शुभकामनाएं। आप और आपके पशुधन सही सलामत रहे यही कामना है।

(दीपक सिंह नेगी, वरिष्ठ पत्रकार)

(फोटो- साभार फेसबुक )