मां पूर्णागिरी : 52 शक्तिपीठों में से एक इस मंदिर में 1632 संवत् से शुरू हुई थी पूजा अर्चना, हर साल नवरात्र पर लगता है मेला…..

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हिंदू धर्म में श्राद्ध खत्म होने के बाद से ही नवरात्र शुरू हो जाते हैं। शारदीय नवरात्र ऐसे नवरात्र हैं जब उत्तराखंड राज्य के कई मंदिरों में पूजा होने के साथ ही यहां मेलों का आयोजन होता है। चंपावत जिले के टनकपुर से 19 किमी स्थित मां पूर्णागिरी धाम 52 शक्तिपीठों में से एक है। यहां हर साल चैत्र और शारदीय नवरात्रों पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।

टनकपुर के पर्वतीय अंचल में शारदा नदी के तट पर स्थित अन्नपूर्णा चोटी के शिखर पर लगभग 3000 फीट की उंचाई पर यह शक्तिपीठ स्थापित है। कहा जाता है कि यहां दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग गिरा था।

देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सबसे अधिक महत्व रखता है। मां पूर्णागिरी के मंदिर निर्माण को लेकर कहा जाता है कि गुजरात के राजा श्री चंद तिवारी संवत् 1621 में यमनों के अत्याचार के बाद जब चम्पावत के राजा ज्ञान चंद की शरण में आए तो उन्हें एक रात सपने में मां पूर्णागिरि ने मंदिर बनाने का आदेश दिया। जिसके बाद संवत् 1632 में इस धाम की स्थापना कर पूजा-अर्चना शुरू हुई। तब से ही यह स्थान आस्था, भक्ति और श्रद्धा की त्रिवेणी बना हुआ है। कहा जाता है कि यहां पहुंचने वाले हर भक्त की मुराद जरूर पूरी होती है।

पूर्णागिरी मंदिर परिसर में लगी रंगबिरंगी लाल-पीली चीर आस्था की महिमा को बयान करती है। वहीं मनोकामना पूरी होने पर पूर्णागिरी मंदिर के दर्शन और आभार प्रकट करने और ‘चीर की गांठ’ खोलने आने की मान्यता भी है। देवी सप्तशती में इस बात का वर्णन है कि नवरात्रियो में वार्षिक महापूजा के अवसर पर जो व्यक्ति देवी के महत्व की शक्ति को निष्ठापूर्वक सुनेगा। वह सभी बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से संपन्न हो जाएगा।

पूर्णागिरी मंदिर से लौटते समय यहां स्थित झूठे का मंदिर की भी पूजा की जाती है। इस मंदिर को लेकर ऐसा कहा जाता है कि एक व्यापारी ने मां पूर्णागिरी से पुत्र प्राप्ति की फरियाद की थी। इस दौरान उसने मां से वादा किया था कि अगर उसकी इच्छा पूरी हुई तो वह एक सोने की वेदी का निर्माण करेगा, लेकिन जब उनकी इच्छा देवी ने पूरी की तो व्यापारी के मन में लालच आ गया। लालच आते ही व्यापारी का मन बदल गया। उसने सोने की परत चढाने के साथ ही तांबे की एक वेदी बना डाली। जब मजदूर मंदिर को ले जा रहे थे तो उन्होंने कुछ देर आराम करने के लिए मंदिर को जमीन पर रख दिया। जिसके बाद उन्होंने जब मंदिर को उठाने की कोशिश की, तो मंदिर का भार इतना बढ़ गया कि कोई भी उठा नहीं सका। तब व्यापारी को अपनी गलती समझ आई और उसने मांफी मांगी, जिसके बाद इस मंदिर में भी माता की पूजा की जाती है।

सिद्ध बाबा के दर्शन से पूरी मानी जाती है यात्रा

पूर्णागिरि मंदिर से ऊंची चोटी पर एक सिद्ध बाबा ने अपना आश्रम जमा लिया था। जो उन्मत्त होकर देवी को श्रृंगार को देखता था। क्रोध में मां ने सिद्ध को शारदा नदी के पार नेपाल में फेंक दिया। जिसके बाद उसे अपने कृत्य पर पछतावा हुआ और उसने मां से माफी मांगी, इसके बाद मां ने कहा कि उनकी यात्रा तभी पूरी होगी जब श्रद्धालु सिद्ध बाबा के भी दर्शन करेंगे। तब से ही नेपाल में सिद्धबाबा का मंदिर स्थापित है और मां पूर्णागिरि के दर्शन के बाद भक्त सिद्धबाबा मंदिर में भी दर्शन करने पहुँचते हैं।

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