उत्तराखंड अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिए जाना जाता है यहां के लोक पर्व, लोक गाथाएं और यहां के लोक नृत्य अपने आप में एक धरोहर को संजोए है। इनमें पिथौरागढ़ में ऐतिहासिक हिलजात्रा पर्व का खास महत्व है। जो कृषि प्रधान पर्व है और प्रकृति के प्रति प्रेम के समर्पण को दर्शाता है। इस पर्व में हजारों की संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहते हैं।
सोर घाटी पिथौरागढ़ में सावन के इस महीने को कृषि पर्व के रूप में मनाने की परंपरा पिछली 5 सदियों से चली आ रही है। “सातूं-आठूं” से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन पिथौरागढ़ में हिलजात्रा के रूप में होता है। यह आस्था और मनोरंजन का एक ऐसा एक पर्व है, जिसमें अध्यात्म और संस्कृति के कई रंग देखने को मिलते हैं। जिसमें भगवान शिव का 12 वां गण माने जाने वाला लखिया भूत डरावने मुखोटे के साथ श्रद्धालुओं के बीच पहुंचता है।
उसके साथ पर्व में बैल, हिरण, चीतल जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरकर दर्शकों को रोमांचित करते हैं। लखिया भूत सबसे बड़ा आकर्षण होता है। जो लोगों को सुख और समृद्धि का आशीर्वाद देता है और अगले वर्ष आने का वादा कर चला जाता है।
यह पर्व पिथौरागढ़ के सोर, अस्कोट और सीरा परगने में मनाया जाता है।
शौर्य गाथा की कहानी है हिल जात्रा
हिलजात्रा की शुरुआत पिथौरागढ़ जिले के कुमौड़ गांव से हुई। कुमौड़ गांव की हिलजात्रा का इतिहास करीब 500 साल पुराना है। माना जाता है कि इस गांव के चार महर भाई नेपाल में हर साल आयोजित होने वाली इंद्रजात्रा में शामिल होने गये थे। महर भाईयों की बहादुरी से खुश होकर नेपाल नरेश ने यश और समृद्धि के प्रतीक के रूप में उन्हें ‘मुखौटे’ इनाम में दिए थे। तभी से नेपाल की ही तर्ज पर ये पर्व सोर घाटी पिथौरागढ़ में भी हिलजात्रा रूप में बढ़ी धूमधाम से मनाया जाने लगा।