
हल्द्वानी। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर (डॉ.) राकेश चंद्र रयाल (मनरागी) ने कहा कि “जनसंचार माध्यम केवल सूचना या मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज में आस्था और सांस्कृतिक परिवर्तन के वाहक भी हैं।”

उन्होंने कहा कि 1975 में बनी फ़िल्म ‘जय संतोषी माँ’ ने भारतीय समाज में श्रद्धा और भक्ति के प्रसार को एक नई दिशा दी। उस दौर में जब टेलीविज़न धीरे-धीरे घरों तक पहुँच रहा था, तब इस फ़िल्म ने जनमानस में देवी संतोषी के प्रति आस्था का प्रवाह कर दिया।
फ़िल्म के भजन “जय संतोषी माँ, जय संतोषी माँ” और “मैं तो आरती उतारूँ रे संतोषी माता की” हर घर में गूंजने लगे, और देखते ही देखते ‘संतोषी माता का व्रत’ देशभर में लोकप्रिय हो गया।
प्रो. रयाल ने कहा कि 80 और 90 के दशक में जब टेलीविज़न हर घर का हिस्सा बन गया, तो इस फ़िल्म के पुनः प्रसारण ने लोगों की धार्मिक आस्था को और मज़बूत किया।
उन्होंने कहा कि जिस प्रकार उस दौर में फ़िल्म और टेलीविज़न ने भक्ति और विश्वास का विस्तार किया था, उसी तरह आज डिजिटल मीडिया और सोशल प्लेटफ़ॉर्म्स करवाचौथ जैसे पर्वों को नए रूप में जीवित रख रहे हैं।
उन्होंने बताया कि “इंस्टाग्राम, यूट्यूब और फेसबुक ने करवाचौथ को अब केवल उत्तर भारत का पर्व नहीं रहने दिया, बल्कि इसे प्रेम, समर्पण और पारिवारिक एकता का प्रतीक बना दिया है।”
अंत में प्रो. रयाल ने कहा —
“माध्यम बदलते हैं, पर भाव वही रहते हैं।
कभी ‘जय संतोषी माँ’ की आरती से,
तो कभी करवाचौथ की थाली से —
आस्था की ज्योति हर युग में जलती रहती है।”

